शादी-ब्याह और भंडारे: जाइये, दबाकर चटाइए-खाइये और फिर मुस्कुराइये
व्यंग्य
शादी का सीजन आया नहीं कि टोले-मोहल्ले के हर मोड़ पर “साजन-की-सोनम” के गीत गूंजने लगते हैं। भंडारे की बात ही निराली है। और फिर शुरू होता है वही पुराना खेल- रिश्तेदारी, मोहल्ला और दोस्त, सभी के बीच स्वादिष्ट पकवानों पर एक अद्भुत रेस, जहां कोई रुकने का नाम नहीं लेता।
अब, ये कोई आम रेस नहीं है, जहां जीतने वाले को ट्रॉफी मिलती है। यहां तो सब कुछ ‘चटाइए, खाइये और फिर मुस्कुराइये’ की धारा पर चलता है। जो सबसे पहले मटन के कटलेट की प्लेट पकड़े, वही राजा।
कोई सलाद पर अटक जाता है तो कोई शाही पुलाव पर; और फिर वो लोग जो रसगुल्ला खाते समय दूसरों से नजर बचाते हुए, जैसे किसी मिशन पर हो, एक-एक काटे हुए रसगुल्ले को अपने ‘जादू’ से खत्म कर जाते हैं।
लेकिन असली बात तो यह है कि भंडारों में पहुंचे बिना पेट भरने का रिवाज नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा है, “भंडारे का खाना बिना खाए कोई कैसे घर लौटे?”
मोहल्ले की अम्मा कहती हैं, “खाना तो खिलाना है, लेकिन थोड़ा जरा कम खाइये।” पर वो क्या करें, जिनके मुंह में एक साथ चार समोसे, तीन पैटीज और ढेर सारी गुलाब जामुन समा जाते हैं, बिना एक भी लकीर छोड़े।
फिर होता है वो मजेदार दृश्य, जब रिश्तेदार या मोहल्ले के लोग, एक प्लेट में खाकर दूसरी प्लेट से चुपके से एक नया पकोड़ा निकालने के बाद खुश हो जाते हैं। अब, सोचिए, ये पकोड़ा तो बिना काले पानी का स्वाद नहीं आता।
आखिरकार, जब ये सारी कथाएं एक-एक करके पूरे मोहल्ले में घूमती हैं तो क्या होता है? मोहल्ला एक पंक्ति में खड़ा हो जाता है- “आओ, खाओ, टेंशन छोड़ो।”